Abstract : भारत दार्शनिकों एवं मनीषियों की पावन भूमि है। प्राचीन काल से आजतक इस पवित्र रजकण ने गंगा की निर्मल धारा की तरह आध्यात्मिक एवं मानव-कल्याण की जो अनवरत धारा बहाई उसका उदाहरण विश्व के किसी अन्य देश में मिलना दुर्लभ है। 19 वीं शताब्दी में जबकि अंग्रेजी सभ्यता अपने पाँव भारत में दृढता पूर्वक जमा रही थी और भारतीय समाज मरणोन्मुख साँस ले रहा था, तब ब्र्रह्म समाज और प्रार्थना समाज के रुप में मृतक प्राय: समाज को गंगा जली छिड़क जीवित करने का असफल प्रयास किया जा रहा था।
1857 की महान क्रांति के पश्चात् जब कि समस्त राष्ट्र अंग्रेजी अत्याचार और दमन चक्र का शिकार हो रहा था, एक नई चेतना नये प्राण, नई आशा, तथा नया विश्वास जनता के मानस तल पर तौरता दिखाई दिया। इस महान आशा के संदेश को देने वाले उसी ऋषियों की परम्परा में से एक थे "स्वामी दयानन्द", जिन्होंने न केवल देश के पुनर्निमाण में योगदान दिया वरन् भारत के सत्य, प्रेम, शांति और अहिंसा के संदेश के साथ साथ राष्ट्रभाषा, राष्ट्र प्रेम और शिक्षा के क्षेत्र में दृढ़ आदर्शवादी विचार हमारे सामने प्रस्तुत किये।
स्वामी दयानन्द सरस्वतीजी ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा 19 वीं शताब्दी में ही घोषित कर दिया था। उस समय ही उनका यह कथन था कि, 'हिन्दी ही संपूर्ण राष्ट्र की जन भाषा के रुप में विकसित हो सकती है। उन्होंने समस्त देश का भ्रमण करने के पश्चात् यह मत दिया। उनके विचार में शिक्षा केन्द्रों में पाठक्रम में हिन्दी भाषा और धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य स्थान मिलना चाहिए।'